
ये नक़ाब मेरा पहचान है मेरी!
लोग समझ नहीं पाते, बूझ नहीं पाते
कि जो वाक़ई में दीखता है
वो सच है, या कोई नक़ाब है ?
मुस्कराहट है चेहरे की, या दुखों का हिसाब है !
उनको दिखती है सिर्फ़ मुस्कराहट
जो तिनका तिनका संजोयी है मैंने
उन सभी ज़ख्मों से, जो नक़ाब के पीछे थे!
चुपचाप !
नक़ाब नहीं होगा तो दया मिलेगी, सांत्वना मिलेगी
शायद झूठी हमदर्दी भी
जो मुझे न होते हुए भी कमज़ोर बना देगी
इसीलिए नक़ाब दिखाता हूँ उन्हें , दिल नहीं!
मैं अक्सर निकल पड़ता हूँ रात के अँधेरे में
उस वक़्त मैं होता हूँ, दिल और रात का साथ होता है ।
सुकून भी होता है
क्योंकि नक़ाब नहीं होता!
हर बेतुके सवाल का देना जवाब नहीं होता।
न ही कोई देख सकता है, वो चेहरा
जो सबसे छिपता हूँ मैं, दिन की रोशनी में।
एक रात ही तो है, जब मैं आज़ाद होता हूँ
जीने को, जैसे मैं जीना चाहता हूँ
उस भीड़ से, दया से, शोर से दूर
एक रात ही तो है जो समझती है मुझे, और मेरे हाल को।
वो सवाल नहीं पूछती ! जवाब नहीं माँगती!
जो बरसों से कुछ कहना चाहती है, इस तन्हाई से!
क्योंकि रात को अँधेरे में नक़ाब नहीं दिखता
ज़बरदस्ती से लपेटा हुआ हिज़ाब नहीं दिखता!
उसे तो बस सुनाई देती है वो धड़कन
वो जो ख़ामोश हो जाती है, दिन के उजाले में, उन नाफ़िकरों की भीड़ में।
जब मैं पहन लेता हूँ, वो नक़ाब मेरा
जो पहचान है मेरी!
-रजत
:)