Friday, 16 December 2016

ये नक़ाब मेरा!


ये नक़ाब मेरा पहचान है मेरी!
लोग समझ नहीं पाते, बूझ नहीं पाते 
कि जो वाक़ई  में दीखता है 
वो सच है, या कोई नक़ाब है ?
मुस्कराहट है चेहरे की, या दुखों का हिसाब है !
उनको दिखती है सिर्फ़ मुस्कराहट 
जो तिनका तिनका संजोयी  है मैंने 
उन सभी ज़ख्मों से, जो नक़ाब के पीछे थे! 
चुपचाप !

नक़ाब नहीं होगा तो दया मिलेगी, सांत्वना मिलेगी 
शायद झूठी हमदर्दी भी 
जो मुझे न होते हुए भी कमज़ोर बना देगी 
इसीलिए नक़ाब दिखाता  हूँ उन्हें , दिल नहीं!

मैं अक्सर निकल पड़ता हूँ रात के अँधेरे में
उस वक़्त मैं होता हूँ, दिल और रात का साथ  होता है । 
सुकून भी होता है
क्योंकि नक़ाब नहीं होता!
हर बेतुके सवाल का देना जवाब नहीं होता। 
न ही कोई देख सकता है, वो चेहरा
जो सबसे छिपता हूँ मैं, दिन की रोशनी में। 

एक रात ही तो है, जब मैं आज़ाद होता हूँ 
जीने को, जैसे मैं जीना चाहता हूँ 
उस भीड़ से, दया से, शोर से दूर 
एक रात ही तो है जो समझती है मुझे, और मेरे हाल को। 
वो सवाल नहीं पूछती ! जवाब नहीं माँगती!
जो बरसों से कुछ कहना चाहती है, इस तन्हाई से!
क्योंकि रात को अँधेरे में नक़ाब नहीं दिखता 
ज़बरदस्ती से लपेटा हुआ हिज़ाब नहीं दिखता!
उसे तो बस सुनाई देती है वो धड़कन 
वो जो ख़ामोश हो जाती है, दिन के उजाले में, उन  नाफ़िकरों की भीड़ में। 
जब मैं पहन लेता हूँ, वो नक़ाब मेरा 
जो पहचान है मेरी!
                                                                              -रजत 
                                                                                  :)





Tuesday, 6 December 2016

वे बूढ़ी आँखें

बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ मगर माँ बाप के लिए बच्चे ही रहते  हैं। अपने बच्चों की फ़िक्र और चिंता उन्हें हर वक़्त रहती है। कभी कभी लगता है वो ज़रुरत से ज़्यादा ही चिंता करते हैं। मगर सच तो ये है कि ये उनका प्यार है, आशीर्वाद है , हक़ है। जो उनसे कोई नहीं छीन  सकता।  बच्चे भी नहीं।
                      ये कहानी एक माँ की है जिसका बेटा सरहद पर गया था, एक रोज़, लौट के आने के लिए।  मगर कभी लौटा  ही नहीं। उसकी कोई खबर ही नहीं आयी है आज तक।सालों से वे बूढ़ी आंखें उसका इंतज़ार देख रही हैं। उनकी रौशनी फ़ीकी पड़ गयी है मगर उम्मीद जवां है। इसी उम्मीद में, वे ऑंखें रोज़ रोशन होती हैं।

वो दिन को रात , रात को दिन होते देखती हैं
चौखट के बाहर बच्चों को खेलते देखती हैं
जिस राह पर आते हैं , जाते हैं लोग
वो उसी राह पर "किसी की राह " देखती हैं

वे आँखें उस बूढ़ी माँ की, बुझ सी गयी हैं
किसी के इंतज़ार में
एक रोज़ गया था सरहद पर
अभी तक नहीं लौटा
सब यही कहते हैं "अरे  वो तो मर  गया है "
मगर उसे यक़ीन  नहीं होता , करे भी कैसे ?
वो माँ है, यक़ीन नहीं करेगी !
जब तक देख न ले उसको
उन्हीं आँखों से, उसी दहलीज़ पर
जिस से विदा किया था एक रोज़
चिरंजीवी हो! कह कर......

वे बूढ़ी आँखें चमक उठती हैं
उम्मीद से
जब कोई आहाट  सुनती हैं चौखट पे
उसे याद आ जाती है उन्ही  क़दमों की आहट
जो कभी होती थी, उस आँगन में
उसके क़दमों से , हंसी से
उस सुनहरे वक़्त में।

तब रोशन थी वे आँखें
मगर आज!
आज बूढ़ी हो गयी हैं!
नहीं भूली हैं, तो वो यादें
जिनमें उसका शोर, उसकी हंसी अब तक सुनाई देती है
बस दिखती नहीं है वक़्त की वो  धुंधली तस्वीर
जो अब तक सुनाई देती है।

फिर ढल जाता है दिन
छिप जाता है सूरज
और ले जाता है अपने साथ में
वे बूढ़ी आंखें और उनकी बची कुची रौशनी
बड़ी मुश्किल से काटती है रात
तारे भी नहीं गिन सकती, "बहुत दूर हैं न !"
तभी डरा देता है एक ख़याल!
कहीं  उनमें से एक "मुन्ना भी तो नहीं !" :/

उसी डर से लड़ते लड़ते हो जाती है सुबह
फिर से आती है उम्मीद, उन आँखों में!
और रोशन हो जाती हैं वे आंखें!
 एक बार फिर से बुझने के लिए
वही आँखें ! "जो बुझ सी गयी हैं!'


                         - रजत 



Friday, 2 December 2016

कुछ काम अधूरे बाकी हैं .....


वक़्त ऐसा साथी  है जो इंसान की ज़िंदगी  में सारे काम करता है। सुख देता है तो दुःख भी देता है। ज़ख्म देता है तो मरहम भी लगता है। इंसान की उम्र निकल जाती है मगर वक़्त की कोई उम्र नहीं होती। वो तो चलता रहता है। अनादिकाल तक। हमारा काम उस साथी से  न ही आगे निकलना है और न ही पीछे छूट जाना है।  बस  साथ चलना है।  मेरी कविता का उद्देश्य बस वक़्त की अहमियत को समझाना है। और अगर मैं ऐसा कर पाया तो अपने आप को ख़ुशक़िस्मत  समझूँगा। 

ऐ वक़्त ज़रा कुछ देर ठहर 
कुछ काम अधूरे बाकी हैं। 
जी  कर  भी ना महसूस किये जो 
वो एहसास अधूरे बाकी हैं। 
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं

जो क़र्ज़ है मुझ पर ममता का 
वो क़र्ज़ चुकाना बाकी है। 
बेटे का है जो पिता के लिए 
वो फ़र्ज़ निभाना बाकी है। 
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं

वो चली गयी यूँ तोड़ के दिल  
दिल को समझाना बाकी है। 
वो अपने जो थे रूठ गए  
रूठों  को मनना बाकी  है। 
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं

कब हुआ जवां  कब उम्र ढली 
ये गणित लगाना बाकी है
जिस बचपन को खुल के जी न सका 
वो बचपन फ़िर  जीना बाकी है। 
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं

क्या मेरा था क्या छूट गया 
ये बात समझना बाकी है। 
ग़म में  डूबा  कुछ पी पाया 
कुछ पैमाने में बाकी है। 
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं

अब गया समय और गयी उम्र 
अब मौत का आना बाकी है
अभी चाहत है फिर जीने की 
जीने की हसरत बाकी है।  
ऐ वक़्त ज़रा . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .  बाकी हैं
                                                  
            ऐ वक़्त ज़रा कुछ देर ठहर  कुछ काम अधूरे बाकी हैं।                                               -रजत 

डायरी के दायरों से निकली हुई एक कविता।  उम्मीद करता हूँ आप सब को पसंद आएगी।