बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ मगर माँ बाप के लिए बच्चे ही रहते हैं। अपने बच्चों की फ़िक्र और चिंता उन्हें हर वक़्त रहती है। कभी कभी लगता है वो ज़रुरत से ज़्यादा ही चिंता करते हैं। मगर सच तो ये है कि ये उनका प्यार है, आशीर्वाद है , हक़ है। जो उनसे कोई नहीं छीन सकता। बच्चे भी नहीं।
ये कहानी एक माँ की है जिसका बेटा सरहद पर गया था, एक रोज़, लौट के आने के लिए। मगर कभी लौटा ही नहीं। उसकी कोई खबर ही नहीं आयी है आज तक।सालों से वे बूढ़ी आंखें उसका इंतज़ार देख रही हैं। उनकी रौशनी फ़ीकी पड़ गयी है मगर उम्मीद जवां है। इसी उम्मीद में, वे ऑंखें रोज़ रोशन होती हैं।
वो दिन को रात , रात को दिन होते देखती हैं
चौखट के बाहर बच्चों को खेलते देखती हैं
जिस राह पर आते हैं , जाते हैं लोग
वो उसी राह पर "किसी की राह " देखती हैं
वे आँखें उस बूढ़ी माँ की, बुझ सी गयी हैं
किसी के इंतज़ार में
एक रोज़ गया था सरहद पर
अभी तक नहीं लौटा
सब यही कहते हैं "अरे वो तो मर गया है "
मगर उसे यक़ीन नहीं होता , करे भी कैसे ?
वो माँ है, यक़ीन नहीं करेगी !
जब तक देख न ले उसको
उन्हीं आँखों से, उसी दहलीज़ पर
जिस से विदा किया था एक रोज़
चिरंजीवी हो! कह कर......
वे बूढ़ी आँखें चमक उठती हैं
उम्मीद से
जब कोई आहाट सुनती हैं चौखट पे
उसे याद आ जाती है उन्ही क़दमों की आहट
जो कभी होती थी, उस आँगन में
उसके क़दमों से , हंसी से
उस सुनहरे वक़्त में।
तब रोशन थी वे आँखें
मगर आज!
आज बूढ़ी हो गयी हैं!
नहीं भूली हैं, तो वो यादें
जिनमें उसका शोर, उसकी हंसी अब तक सुनाई देती है
बस दिखती नहीं है वक़्त की वो धुंधली तस्वीर
जो अब तक सुनाई देती है।
फिर ढल जाता है दिन
छिप जाता है सूरज
और ले जाता है अपने साथ में
वे बूढ़ी आंखें और उनकी बची कुची रौशनी
बड़ी मुश्किल से काटती है रात
तारे भी नहीं गिन सकती, "बहुत दूर हैं न !"
तभी डरा देता है एक ख़याल!
कहीं उनमें से एक "मुन्ना भी तो नहीं !" :/
उसी डर से लड़ते लड़ते हो जाती है सुबह
फिर से आती है उम्मीद, उन आँखों में!
और रोशन हो जाती हैं वे आंखें!
एक बार फिर से बुझने के लिए
वही आँखें ! "जो बुझ सी गयी हैं!'

- रजत
ये कहानी एक माँ की है जिसका बेटा सरहद पर गया था, एक रोज़, लौट के आने के लिए। मगर कभी लौटा ही नहीं। उसकी कोई खबर ही नहीं आयी है आज तक।सालों से वे बूढ़ी आंखें उसका इंतज़ार देख रही हैं। उनकी रौशनी फ़ीकी पड़ गयी है मगर उम्मीद जवां है। इसी उम्मीद में, वे ऑंखें रोज़ रोशन होती हैं।
वो दिन को रात , रात को दिन होते देखती हैं
चौखट के बाहर बच्चों को खेलते देखती हैं
जिस राह पर आते हैं , जाते हैं लोग
वो उसी राह पर "किसी की राह " देखती हैं
वे आँखें उस बूढ़ी माँ की, बुझ सी गयी हैं
किसी के इंतज़ार में
एक रोज़ गया था सरहद पर
अभी तक नहीं लौटा
सब यही कहते हैं "अरे वो तो मर गया है "
मगर उसे यक़ीन नहीं होता , करे भी कैसे ?
वो माँ है, यक़ीन नहीं करेगी !
जब तक देख न ले उसको
उन्हीं आँखों से, उसी दहलीज़ पर
जिस से विदा किया था एक रोज़
चिरंजीवी हो! कह कर......
वे बूढ़ी आँखें चमक उठती हैं
उम्मीद से
जब कोई आहाट सुनती हैं चौखट पे
उसे याद आ जाती है उन्ही क़दमों की आहट
जो कभी होती थी, उस आँगन में
उसके क़दमों से , हंसी से
उस सुनहरे वक़्त में।
तब रोशन थी वे आँखें
मगर आज!
आज बूढ़ी हो गयी हैं!
नहीं भूली हैं, तो वो यादें
जिनमें उसका शोर, उसकी हंसी अब तक सुनाई देती है
बस दिखती नहीं है वक़्त की वो धुंधली तस्वीर
जो अब तक सुनाई देती है।
फिर ढल जाता है दिन
छिप जाता है सूरज
और ले जाता है अपने साथ में
वे बूढ़ी आंखें और उनकी बची कुची रौशनी
बड़ी मुश्किल से काटती है रात
तारे भी नहीं गिन सकती, "बहुत दूर हैं न !"
तभी डरा देता है एक ख़याल!
कहीं उनमें से एक "मुन्ना भी तो नहीं !" :/
उसी डर से लड़ते लड़ते हो जाती है सुबह
फिर से आती है उम्मीद, उन आँखों में!
और रोशन हो जाती हैं वे आंखें!
एक बार फिर से बुझने के लिए
वही आँखें ! "जो बुझ सी गयी हैं!'

- रजत
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